The seeds for Nyaya Chaupal were sown when a group of legal experts met in New Delhi on January 8, 2017 under the chairmanship of Justice R.C. Lahoti (former Chief Justice of India).
Thereafter, several deliberations resulted in Nyaya Chaupal becoming a registered society and working extensively in Faridabad, Delhi and Gurugram for informal resolution of disputes.
In the first meeting held on January 8, 2017, which witnessed the participating of former Chief Justice and Judges of the High Courts, the feasibility and desirability of carrying out informal dispute resolution at the grassroot level, was explored. It was observed that the task, though not impossible, is beset with numerous challenges.
On February 26, 2017, a day-long workshop to sensitise nearly thirty people from Delhi and Faridabad was conducted under the guidance of Dr. Krishna Gopal ji, Sah-Sarkaryavah, Rashtriya Swayamsewak Sangh. In the two addresses delivered by him on that day, the philosophy and vision of Nyaya Chaupal was laid forth. Emphasis was laid on improving social relations, which are often destroyed due to litigation in courts.
The next meeting of the Working Group was held on March 5, 2017, where extensive deliberations took place as to what should be the organisational structure of the group and what should be methodology of achieving the objectives of the group. Participants put forth the various social and community efforts which are already going on in the area of informal dispute resolution, in order to evolve a suitable strategy for organising the group and methodology for resolving disputes.
The Working Group met again on May 8, 2017. In the said meeting, it was decided to give the group the shape of a society and get the same registered under the Societies Registration Act at Delhi. As a beginning, efforts to identify and attempt resolution of disputes may be made in Faridabad, Gurugram and Delhi. The first issue of the periodical “Nyaya”, which compiles instances of informal dispute resolution from across the country, was also released at the meeting.
In the meeting held on September 10, 2017, the National Level Working Group took stock of the developments in Faridabad, Gurugram and Delhi. It was informed that the first successful resolution of dispute had taken place by the team at Faridabad, which also found mention in the second issue of “Nyaya” circulated during the said meeting.
‘न्याय चौपाल’ द्वारा 26 फरवरी, 2017 को आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह मा. डॉ. कृष्ण गोपालजीद्वारादिया गया उद्बोधन
मित्रो, देशभर में ऐसे मुकदमे जो न्यायालय में लंबित हैं, उनकी संख्या करोड़ों में है। जो लड़ते हैं वह दोनों ही पक्ष बर्बाद हो जाते हैं। बड़ी संख्या में पैसा तो लगता ही है, लंबी अवधि में न्याय मिलता है। दस साल, पंद्रह साल, बीस साल, कोई सीमा नहीं है। न्याय मिलने के बाद भी समाधान नहीं होता, स्थायी कटुता, शत्रुता, वैमनस्यता हो जाती है और कभी-कभी एक फैसला दूसरे नये case को जन्म देता है। तो भारत की न्याय पद्धति जो पिछले सौ – सवा सौ वर्षों में विकसित हुई है, क्या वह न्याय पद्धति हमारे देश की जो सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक पृष्ठभूमि है उसके अनुकूल है? क्या वह सच में न्याय देती है? क्या इसका कोई दूसरा विकल्प हो सकता है? यह बड़ा प्रश्न है। जैसी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक स्थिति हमारे देश की है उसमें यह न्याय व्यवस्था कितनी कारगर सिद्ध हो पा रही है, यह एक मूल मुद्दा चर्चा का है।
इसमें सबसे पहले तो हम लोग इस पर विचार करते हैं कि भारत में वर्तमान में जो judicial system है, हमको उसकी चर्चा नहीं करनी। उसमें कोई सुधार लाना और उस सिस्टम को बदलना, उसकी चर्चा के लिए हम यहां पर नहीं बैठे। चर्चा का मुद्दा यह है कि जो बड़े ही छोटे-छोटे से cases आते हैं, छोटे-छोटे से झगड़े होते हैं, बड़े petty conflicts हो जाते हैं, वह धीरे-धीरे न्यायालय में पंहुच जाते है, थाने पंहुच जाते हैं, पुलिस पहुंच जाते हैं, वहां के पुलिस केस बन जाते हैं, कभी दूसरा केस बन जाता है। क्या वह सच में ऐसे झगड़े हैं कि जो न्यायालय में ही जाने चाहिए? क्या उसकी और कोई व्यवस्था हो सकती है? यह बड़ा प्रश्न है। उदाहरण के लिए एक परिवार में छोटा सा विवाद हो जाता है, पति-पत्नी का विवाद हो जाता है तो कोर्ट केस बन जाता है फिर वो लड़की जो है वह पांच-सात केस इनके ऊपर लगा देती है, सास-ससुर सबको जेल भिजवा देती है, वे रोते-गाते जमानत करवाते हैं, केस चलता है, अंत में क्या फैसला होता है वो छोड़ दीजिए। कुल मिलाकर दोनों ही परिवार परेशान होते हैं। क्या समाधान क्या है इसमें? तो दोनों परिवारों को बिठाकर चर्चा करके इनके साथ चर्चा, उनके साथ चर्चा, करते-करते कोई एक समाधान निकल सकता है, कोर्ट के अलावा भी? परिवार को कोर्ट में जाना पड़े जरूरत क्या है? कई जातिगत संस्थाएं ऐसी होती हैं, उदाहरण के लिए, मानो हमारे गांव में समाज है उनकी एक बिरादरी है। उस बिरादरी में कोई झगड़ा हो गया, परिवार में ऐसा कोई केस आ गया तो उस बिरादरी की जो पंचायत होती है, उसके चार बुजुर्ग लोग बैठ सकते हैं। दोनों पक्षों से बार-बार बात करते हैं। एक राउंड, दो राउंड, तीन राउंड, चार राउंड, इसको समझाना, लड़की की मां को समझाना, लड़के की मां को समझाना, दोनों के पिता को समझाना, लड़का-लड़की को समझाना और बाद में दोनों को बुलाकर वो जो पंचायत का प्रमुख है, इस लड़की को सौ रुपए दे देता है दक्षिणा में या भेंट या गिफ्ट में देता है, बेटा तू जा अच्छे से रहना। थोड़ा सा इस लड़की को समझाता है, थोड़ा सा लड़की की मां को समझाता है। लड़के को समझाता है। लड़के के परिवार वालों को समझाता हैं। कैसे छोटे-छोटे से जो मुद्दे और एक परिवार न्यायालय में जाने वाला था यह बच जाता है। यह कोर्ट के बाहर का समाधान होता है। दो भाईयों में विवाद हो जाता है, तीन भाईयों में विवाद हो जाता है प्रॉपर्टी को लेकर और किसी बात को लेकर विवाद हो जाता है। तो उन्हीं के कुल-खानदान के लोग बैठ जाते हैं, इसके बहनोई बैठ जाते हैं। इसके फूफा बैठ जाते हैं। कोई चाचा-ताऊ बैठ जाते हैं। मिलकर बैठकर बात को समझकर वे दोनों तीनों-चारों को समझाकर वो फैसला कर देते हैं। हमने ऐसे बहुत फैसले देखे भी हैं। बिठाते हैं, समझाते हैं, इसको समझाते हैं उसको ज्यादा गुस्सा आता है, उसको समझाते हैं जो थोड़ा सा ज्यादा चतुराई करता है उसको समझाते हैं। और फैसला कर दे देते हैं, लेकिन कोर्ट में नहीं जाते हैं। यह जो न्याय व्यवस्था इस देश में सामाजिक परिवेश में, सांस्कृतिक परिवेश में चली आ रही है। लेकिन जहां ऐसे लोग नहीं मिलते वे न्यायालय में जाते हैं। और फिर दो साल, तीन साल। अभी थोड़े दिन पहले ही एक ऐसा हो गया एक प्रदेश में, एक परिवार में विवाद हो गया। अभी शादी हुई थी, अभी एक साल भी नहीं हुआ था। अच्छे बड़े पढ़े-लिखे लोग थे दोनों। तो वह लड़का जेल भेज दिया और उसकी मां भी जेल चली गयी। अब रो रहे बेचारे, क्या करें, कहां जाएं, जैसे-तैसे करके दो, चार, पांच लाख रुपए लगाकर जमानत कराकर बाहर आते हैं वो अपनी कथा कहते हैं और वो अपनी कथा कहते हैं। क्या सच है कहना कठिन होता है, कुल मिलाकर झगड़ा-विवाद। प्रश्न यह है कि वर्तमान में इस देश में जो करोड़ों मुकदमे हैं-कुछ बहुत गंभीर भी होंगे अलग बात है। बड़ी संख्या ऐसी है जिनका कि जो character है, जो स्वरूप है, बहुत छोटा सा मान्य है। इनको कैसे हल कर सकते हैं?
अभी कुछ साल पहले हम लोग गए थे कर्नाटक में, जो धर्मस्थल नाम की जगह है वो सईब तीर्थ है लेकिन उस सईब तीर्थ के प्रमुख एक जैन है, हेगड़े साहब हैं। बहुत सारे शिक्षण संस्थान भी वह चलाते हैं। उनके यहां ही एक बैठक थी। बैठे, बातचीत हुई, पता चला आसपास के कोई 3-4 हजार गांवों के लोग इनके पास न्याय के लिए आते हैं, ये सुनते हैं, सुनने के बाद न्याय देते हैं। न्याय मिलने के बाद वे लोग उन्हें प्रणाम करते हैं। मानते हैं और चले जाते हैं। हमने उनसे पूछा कि आप जो महाराजजी न्याय देते हैं आपकी बात को सब लोग मानते हैं इसका आधार क्या है? तो बड़े मुस्कराकर बोले कि इसका आधार हम नहीं बता सकते हैं। इसका आधार वो लोग बता सकते हैं जिनको न्याय मिलता है। हम नहीं बता सकते। हमारे पास कोई ऑथरिटी नहीं है। सरकार ने, संविधान ने, हमको कोई ऑथरिटी दी है, ऐसा नहीं है। कुल मिलाकर यह ऑथरिटी क्या है। हजारों गांव के लोग आए, इन्होंने सुनाया उन्होंने सुनाया, दो बार-तीन बार सुना और सुनने के बाद भी फैसला किया। वो मान गए। हजारों केस करते हैं वैसे निपटाते हैं। सरकार भी उनको recognize करती है, वहां का न्याय भी कानून भी सभी उनको मान्यता देता है, आधार क्या है? आधार है उनकी निष्पक्षता। आधार है उनका कोई स्वार्थ न होना। आधार है दोनों ही दलों के साथ इनका प्रेम का व्यवहार। निष्पक्षता लोगों को मालूम है, यह न्याय करेंगे। हमारी गलती होगी तो हमको बताएंगे। इनकी गलती होगी तो इनको बताएंगे। इतना विश्वास जो है, वहां का इसके कारण से इनको न्याय मिलता है। एक पैसा भी खर्च नहीं करते, बल्कि इनके यहां तो यह भी व्यवस्था है, बहुत बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं हैं, हजारों लोगों के रहने की निःशुल्क व्यवस्था हैं। जो वहां रहेगा उसको कोई पैसा देना ही नहीं है। न निवास का, न भोजन का। न जलपान का, न वस्त्र का। आइए, रहिए। सात दिन रहिए, चले जाइए। फिर आ जाइए। एक बार सात दिन फिर रह सकते हैं। ये जो एक व्यवस्था उन्होंने बनाई, ऐसी व्यवस्था अभी भी आज के समय भी देश भर में हजारों स्थान पर छोटे बड़े रूप में मौजूद है।
अभी मैं इन्द्रेश जी से एक दिन बात कर रहा था उन्होंने हिमाचल के कई गांव बताए, उन गांवों में व्यवस्था है कोई मुकदमा है ही नहीं, कोई केस पुलिस में जाता ही नहीं, छोटे-मोटे विवाद खड़े होते हैं वहीं के लोग बैठकर फैसला करते हैं, सब मान जाते हैं गांवों में, उन्होंने व्यवस्था की है। उनके पास जाएंगे व्यवस्था दे देंगे। कोई मुकदमा तो नहीं जाता कोर्ट में कचहरी में, नहीं जाते पुलिस में कोई एफआईआर तो नहीं होता है, कैसे हो गया ऐसा। बुलन्दशहर में एक हमारे कृष्ण कुमारजी उपाध्याय एक एडवोकेट थे क्रिमिनल के। तो वे एक बेलोण की बड़ी देवी है उस देवी के महंत परिवार के भी थे तो कभी कभी उनके यहां का मुकदमा उनके पास आता था। तो इनके घर में बुलन्दशहर में नीचे एक 5-7 कमरे अच्छी गौशाला नीचे थी यह परिवार ऊपर रहता था। जो मुकदमा लेकर आते थे उनको कहते थे नीचे ठहर जाओ, नीचे ठहर जाते थे, शाम को कचहरी से/न्यायालय से आने के बाद उनको बुलाते थे। हां, वकील साहब हमारा केस लड़ लीजिए। नहीं, नहीं मैं तुम्हारा केस नहीं लडूंगा, मेरे बैलोण के पास जो दस गांव है, इन 10 गांवों का मुकदमा नहीं लड़ता मैं, तुम्हारा फैसला करता हूं, दोनों पार्टियों को अपने यहां ठहराते थे, दोनों पार्टियों को कहते थे गाय का दूध मेरे यहां है अपने लिए नीचे खाना पीना बनाओ, खाओ, चिंता मत करो, रहो यहां, 2 दिन, 3 दिन 4 दिन तक दोनों पार्टियों को रूकाते थे, बाद में फैसला करते थे। विदा करते थे। कोई पार्टी जिद्द करती तो कहते थे-नहीं-नहीं हमारा केस लड़िए, आप तो कहते थे वकील बहुत है चले जाइए, जाओ यहां से वकीलों की क्या कमी है, मैं तो इन 10 गांव का मुकदमा नहीं लडूंगा। तुम्हारा पंचायत करवाऊंगा, फैसला करवाऊंगा, हजारों केस उन्होंने निपटा दिये, अब तो आज नहीं हैं। गुजर गए, मेरा कहने का भाव ऐसा है समाज में ऐसे लोग रहते हैं जो वकील भी हो सकते हैं, वकील नहीं भी हो सकते है। लेकिन समाज में, गांव में, शहर में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है जिनके प्रति लोगों का भरोसा है। विश्वास है। निष्पक्षता के बारे में लोगों को कोई संदेह नहीं है। प्रामाणिकता के बारे में कोई भेदभाव करेंगे, ऐसा बिल्कुल नहीं। ऐसे लोग जहां पर है वह लोग अच्छी प्रकार से वहां के विवाद का समाधान करने में समर्थ होते हैं। हमारा यह विचार है बहुत बड़े-बड़े मुकदमे हम छोड़ दें। जो सामान्य हैं, घर का, परिवार का, छोटा-मोटा झगड़ा ऐसे हैं। इसकी भैंस हमारे खेत में घुस गई थी, हमारा खेत खा गई, इससे मार-पीट हो गई फिर फौजदारी हो गई, दोनों-तीनों तरह के केस लग गए, चल रहा है। वो जमीन जिस जमीन पर भैंस खा गई वह जमीन भी बिक गई। अब कुछ नहीं बचा वहां, केस बचा है लेकिन ऐसे मामलों को क्या हम अपने moral authority से वो प्रतिष्ठा जो वहां के समाज ने हमको दी है, जो विश्वास वहां का समाज हमारे प्रति रखता है, उस विश्वास के आधार पर, अपनी moral authority के आधार पर निष्पक्षता के आधार पर वहां के लोगों के इन मुद्दों को सुलझा सकते हैं क्या? यह मुद्दा है बस। न्यायालय में न्यायाधीश कम है, procedure ऐसे किया जाए कि अरदली को ऐसा किया जाए, संविधान में संशोधन किया जाए, यह विषय नहीं है हमारा, वह जो करना है, वह करेंगे हम, उसमें फंस जाएंगे तो हम समाधान भी कोई नहीं दे सकते कुछ भी। सुधार क्या होगा। भगवान जाने वह हमारे बस का काम नहीं है।
हम दो बार बैठे थे, श्रीमान लाहोटीजी के साथ, भाईसाहब भी बैठे थे दोनों बार, एक बार हम 5-7 बंधु बैठे, एक बार उनके घर पर जाकर बैठे। और भी अनेक लोगों से बातचीत हुई तो उनका मत यह था कि यह बहुत अच्छे से हो सकता है। सब तो नहीं लेकिन 15-20-25 प्रतिशत केस ऐसे हैं जो इस condition के है, इस nature के है इनको हम वहीं समाधान दे सकते हैं। ऐसा सब जो बड़े-बड़े न्यायाधीश लोग है, सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं, उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं, उन्होंने ही बताया। हां 30-35 प्रतिशत तक केस ऐसे हैं जिनकी प्रकृति ऐसी है जो बैठाने से, सुलझ सकते हैं लेकिन उसके लिए ऐसे ही लोग चाहिए जैसा हमने बताया। कोई authority नहीं हैं, Constitutional authority हमारे पास नहीं है लेकिन वहां के क्षेत्र का एक, नैतिक हमारा एक आधार है। तो हमारी कॉलोनी में 10-20-25 लोग हमें जानते हैं, मानते हैं हमारे पर श्रद्धा रखते हैं। हम उसको बुलाकर समझाएंगे, बात करने की कोशिश करेंगे। एक sitting में नहीं होगा, 2 sitting में, 3 sitting में उसका Modus Operandi क्या होगा यह तो तय करेंगे बाद में, लेकिन क्या यह संभव है? यह पहला प्रश्न है। क्या ऐसी छोटी-छोटी सी बातें आती हैं, न्यायालय चलता है, उसको अपने मोहल्ला, गांव, शहर वहीं के वहीं बैठकर दो तीन लोग बैठ गए, एक-एक, दो-दो, तीन-तीन लोगों का समूह बैठ गया। दो-दो लोगों की टीम बनकर बैठ गई, दोनों ने सुना, अलग-अलग सुना, मिलकर सुना। बाद में सहमति के साथ कोई एक अच्छा सा सुझाव निर्णय जैसा दे दिया। हमारा जो होगा सुझाव होगा, वो सुझाव को निर्णय मान लेंगे तो अच्छी बात है। तो पहला प्रश्न यह है क्या यह संभव है? कई बार कॉलोनी में, गांव में, छोटी बात को लेकर मारपीट हो गई। बहुत छोटी सी बात है, इसके दो बच्चे वहां चले गए, या वो हो गया, यह हो गया। मारपीट कई बार बढ़ जाती है, बस FIR lodge हो गई। उसमें यही बात प्रमुख रहती है कि इसको कैसे मैं जेल भिजवा दूं। तो जेल भिजवाने के लिए दारोगा को भी पैसा देकर आता है, पुलिस अधिकारियों को पैसा दे आता है, सिपाही को भी पैसा दे आता है। पर जब पैसा देकर जेल भिजवाए तो दूसरे की स्थिति ऐसी हो जाती है, पहले जमानत हो फिर इसको सबक सिखाऊं। इसका बदला भी लेना है इसको। यह कठिन बात है।
हमारे सुरेश सोनीजी ने एक केस बताया हमको, मध्य प्रदेश का पुराना केस था। किसी बात को लेकर वहां के ठाकुर साहब थे, उनके उपर 14 रुपए का जुर्माना हो गया। यही कोई 30-35 साल पुराना केस है। जुर्माना हो गया तो पूरे गांव में वो जुर्माना वाला आया तो गांव में घोषणा कर गया। 14 रुपए का जुर्माना हो गया है जाकर जमा करिये। यह बात ठाकुर साहब को खराब लगी। पूरे गांव में अपमान हो गया, बेईज्जती हो गयी। वह आए, अपने ग्वालियर के एक अच्छे वकील थे शेजवलकरजी थे, उनके पास आए, वकील साहब हमारा केस है, क्या केस है, जुर्माना हो गया, क्या जुर्माना हो गया। 14 रुपए जुर्माना हो गया। तो भर दीजिए। नहीं, नहीं भरेंगे। भरेंगे कैसे? जुर्माना भर देंगे तो क्या बेकार रहा साहब, केस लड़िए। अरे क्या फालतू इस में पड़ गए आप, नहीं-नहीं लड़िए आप। हम फीस देंगे। फीस तो 500 रुपए होगी। 500 रुपए जमा करेंगे न हम। 500 रुपए फीस जमा किया। केस शुरू हो गया। 2-3-4 साल केस चला। हम केस जीत गए। वकील साहब को मालूम ही नहीं, जीतने की सूचना भी उनके पास पहुंच गई। जुर्माना माफ हो गया। एक बड़ी बैलगाड़ी में वे बड़े रथ सजा करके बड़े गाजे-बाजे के साथ वकील साहब के घर आ गए, वकील साहब ने देखा कौन 100-200 लोग आए हैं। कहां वकील साहब के घर, क्या बात है। आपका स्वागत करने के लिए, हम उस गांव से, हम केस जीत गए। कौन सा केस जीत गए आप? वो 14 रुपए जुर्माने वाला। तो करना क्या है इसका अब। माला वाला लेकर आए हैं। अरे इसका क्या जरूरत था। फिर 14 हजार रुपए लेकर आए हैं। 1 रुपए का एक हजार रुपया ईनाम में देंगे हम आपको। चांदी का सिक्का 14000 उस बैलगाड़ी में भरकर लाए हैं देने के लिए। यह क्या हैं? लोगों को ऐसा लगता है कि हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है।
भिंड के जो दस्यू लोग थे, हमें सौभाग्य प्राप्त हो गया उनके साथ रहने का, आपातकाल के समय वह जेल में थे। माधोसिंह वगैरह थे, हम लोगों के साथ जेल में थे। तो वह 6’3’’ का लंबा माधोसिंह, अच्छी पर्सनैलिटी थी, जेल में था। बातचीत होती थी, सन 75 की बात है। हमने पूछा ठाकुर साहब क्या हुआ, जेल में कैसे आ गए। अरे जेल में कैसे आ गये, थे तो फौज में हम लोग। लेकिन यहां के बदमाश लोग क्या बताए हमारी जमीन ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया, फिर हम वापस आए और हमने भी दो मार दिए और ठीक कर दिया हमने फिर। फिर क्या हुआ उन्होंने मारे दो फिर हम बाहर निकले फिर हमने मार दिये दो। अब क्या 53 मुकदमे हमारे ऊपर हैं अब इस समय। अभी जीवित हैं। अभी मैं गया था भिंड तो पता लगा जीवित है वो आयु तो थोड़ा 80-82 साल की है उनकी। वो प्रतिष्ठा का स्वरूप ऐसा होता है जीवन जेल में निकल जाए, उसकी चिंता नहीं है, इसको ठीक दिशा देने का काम कौन कर सकता है? और इसलिए ऐसे जो बंधु इन मुकदमों में फंस जाते हैं वो स्वभाव के कारण, व्यवहार के कारण झूठी प्रतिष्ठा के कारण या असहनशीलता के कारण कोई बात सहन हो नहीं पाती, इसके कारण या ईर्ष्या द्वेष के कारण, कारण कोई सा भी हो बाद में चर्चा करेंगे, पहला प्रश्न यह है, क्या हम लोग अपने इसी समाज में अपने समाज बंधुओं को जो किसी भी कारण से एसे मुकदमों में फंस जाते हैं, जीवन बर्बाद करते हैं, पैसा भी बर्बाद करते हैं, मानसिक अशान्ति आ जाती है, समय तो लगता ही है। सारी creativity धीरे-धीने नष्ट होती जाती है। Ultimately, this is National Loss. यह राष्ट्रीय क्षति है। कुल 2 करोड़ हैं, यह तो न्यायालय में हैं, उसके अलावा Tribunal में, Arbitration में, सब 3 करोड़ से ऊपर हैं।
मैंने सोचा कि गोविन्दजी से बात करूं तो एक 3-4 महीने पहले गोविन्दजी के साथ बैठे। उन्होंने बड़ा गंभीरता से विचार किया, अध्ययन भी किया, एक-दो छोटी सी sitting हम लोगों ने किया। तब पहले चरण में हम लोगों ने विचार किया कि दिल्ली और फरीदाबाद, बस दो spot लेते हैं। दो spot और छोटा-छोटा स्थान लें लेंगे। वहां के कुछ ऐसे बंधु जो इस प्रक्रिया में सहयोगी भूमिका निभा सकते हैं, समाधान की भूमिका में समाज में आ सकते हैं, ऐसे कुछ नामों का चयन किया, ऐसे कुछ नाम आप लोग हैं तो इस बात को हम आगे बढ़ाते हैं तो पहला प्रश्न मेरा यही है कि क्या यह संभव है, कोर्ट के बाहर समाज के ऐसे विवादों को निपटाना, समाधान के इस स्तर पर ले आना या हमारे इस नैतिक शक्ति के आधार पर यह संभव है क्या? समाज की नैतिक शक्ति के आधार पर हम छोटे-छोटे से कम गंभीर मामलों को हम वहीं के वहीं समाधान दे सकते हैं क्या? ऐसी कोई procedure निकल सकती है क्या? हम इस पर विचार करते हैं।
मा. कृष्ण गोपालजी का पूरा उद्बोधन सुनने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें :
10 जनवरी, 2018 को नई दिल्ली में आयोजित ‘न्याय चौपाल’ की राष्ट्रीय बैठक में न्याय चौपाल के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रमेश चन्द्र लाहोटी जी का उद्बोधन
बहुत अच्छा लगा आप सब लोगों से मिलकर और आपके बारे में जानकर। इतने सब लोग जब एक जगह इकट्ठा होते हैं तो बड़ी प्रसन्नता इसलिए होती है कि अपना एक बड़ा आत्मविश्वास जागृत होता है। People from different walks of life, people from different regions of country मैं ये नोट कर रहा था, मेरा ख्याल है, भारतवर्ष का कोई शायद कोई महत्त्वपूर्ण प्रदेश बचा हो जिसका प्रतिनिधित्व आज यहां नहीं है। आज की मीटिंग को हम बिल्कुल नेशनल मीटिंग कह सकते हैं। राष्ट्रीय सभा अपनी हो गई है। और Judges, Advocates, IAS officers, Professors, Civil Services, Vice Chancellors, Air Commodore, Journalists, I.T. Advisors and what not. यानी हर क्षेत्र का व्यक्ति आज यहां उपस्थित हैं।
और विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि आज के समय में सबसे ज्यादा यदि किसी के पास कमी है तो समय की कमी है। पर आप सब लोग दूर-दूर से अपना समय देकर, श्रम देकर, अपना खर्चा करके यहां सब आए हैं। सिर्फ एक कारण है कि अब हम सबके मन में कुछ करने की चाह है। और हमको ऐसा लगता है कि यहां हम कुछ कर सकते हैं।
अभी भाई गोविंदजी ने मेरा परिचय आपको दिया। 2005 में मैं सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के पद से रिटायर हुआ, 12 वर्ष लगभग मुझे हो गए, तो मेरी और आप सब लोगों के मन में, आप लोग भी जो बड़े-बड़े पद धारण कर चुके हैं और वहां से अवकाश प्राप्त किया और यहां आए हैं।
तो मुझे यहां ऐक शे’र याद आता है। किसी शायर ने लिखा है –
कि पहले तो कुछ और भी अरमान थे मरीज़-ए-ग़म के
अब तो बस एक तमन्ना है कि आराम न मिले।
कुछ करना है बस। अब तक बहुत कुछ कर लिया। उससे तसल्ली नहीं हुई फिर भी कुछ करना है। तो हम सबके मन में कुछ-न-कुछ करने की चाह है। इसलिए हम लोग यहां इकट्ठा हुए हैं।
अभी अशोकजी से कल ही संपर्क हुआ और आज यहां मौजूद हैं। बहुत प्रतिष्ठित चाटर्ड एकाउंटेंट हैं। किसी बात की कमी नहीं है। ईश्वर की कृपा है। मेरी इनसे बात हो रही थी अनौपचारिक। एक उदाहरण दे रहा हूं आपको कि हम लोग क्या करना चाहते हैं और कैसे? तो मैंने इनसे पूछा कि आप अपने प्रोफेशन के अलावा कुछ करते हैं क्या? तो मुझे बोले कि मेरे को एक बड़ी चिंता रहती है कि हमारे समाज में जो मध्यमवर्गीय महिलाएं हैं,- मध्यमवर्गीय महिलाएं जो बहुत संपन्न महिलाएं हैं, उन्हें कोई समस्या नहीं है, जो बहुत नीचे के तबके की महिलाएं हैं मेहनत-मजदूरी करती हैं, गुजारा करती हैं, अपना परिश्रम करती हैं, कमाती हैं, खर्च करती हैं। पर जो मध्यम वर्ग की महिला है वे न इधर हैं न उधर हैं। और उसके साथ जो ज्यादती होती है उसका समाधान खोजने की दिशा में मेरा मन निरंतर लगा रहता है कि मैं क्या कर सकता हूं, मुझे क्या करना चाहिए?
तो मैंने उन्हें फिर न्याय चौपाल के बारे में जानकारी दी कि हम लोग जो काम कर रहे हैं वो इससे भी आगे बढ़कर है, केवल मध्यम वर्ग की महिलाएं नहीं, समाज का कोई भी किसी भी वर्ग का सदस्य हो, पुरुष हो या स्त्री हो, उनकी समस्याओं का समाधान करने का उद्देश्य हमारा यही है तो उन्होंने कहा मैं जरूर आना चाहूंगा। जरूर इससे जुड़ना चाहूंगा। और जो भी मैं कर सकता हूं जरूर करूंगा। आपसे संपर्क हुआ और आज यहां आ गए। बहुत व्यस्त व्यक्ति हैं पर उन्होंने कहा कि इस काम के लिए मैं जरूर समय दूंगा। तो हममें से सभी की स्थिति यही है कि हम सब लोग कुछ-न-कुछ करना चाहते हैं।
मैं एक बड़ा रोचक उदाहरण आपको दूं। आप सब लोग अपने-अपने तरीके से कुछ-न-कुछ कहीं-न-कहीं कर रहे हैं। ये आपने अपने परिचय में बताया। सदा साहब है, ये हमसे जुड़ने से पहले ही वो यही काम कर रहे थे और अपने गांव में अपने क्षेत्र में कई संगीन अपराध के मुकदमे भी जो दण्डनीय अपराध हैं जिनमें जमानत भी नहीं हो सकती, वो भी आपलोगों ने अपने प्रयास से और गांव में ही बैठकर सुलझा दिए। उनकी कुछ जानकारी ये जो आज हैंडबुक निकली है इसमें उल्लेख है।
मैं आपको बड़ा रोचक उदाहरण देना चाहता हूं कि कई समस्याएं हमारे देश में हैं। एक बार, पुणे में एक संत हैं मैं उनका बड़ा सम्मान करता हूं, उनके पास गया मैं। मैंने उनसे पूछा कि ये जो समस्याएं हैं इनके समाधान के लिए काम तो हो रहा है पर कैसा काम हो रहा है कि जैसे जमीन में जगह-जगह गड्ढे बने होते हैं, थोड़ा-थोड़ा पानी सब में भरा होता है, कोई तालाब तो नहीं होता है, कोई कुंआ तो नहीं होता तो सबकी प्यास बुझाने की क्षमता किसी एक गड्ढे में नहीं होती तो ये छोटे-छोटे जो काम अलग-अलग जगह हो रहे हैं इससे हमारी जो समस्याएं हैं कैसे मिटेंगी? तो उन्होंने जो उत्तर दिया वह बड़ा सुंदर है। वो मेरा नाम लेकर बोले कि देखिए कभी जब जोर की बरसात होगी तो यह सब पानी भर जाएगा। और जितने छोटे-छोटे गड्ढे हैं वो सब मिलकर एक तालाब हो जाएंगे, सबका पानी एक-दूसरे से मिल जाएगा, तो हमारा जो उद्देश्य है, हम जो सब लोग इकट्ठे हैं, हमारा उद्देश्य ये है कि अलग-अलग हम जो काम कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं, तो करना चाहते हैं, ये हमारा काम एक सामूहिक होकर एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले सके। राष्ट्रीय आंदोलन की चर्चा करते ही डॉ. कृष्णगोपालजी आ गये। हम सब लोग मिल-जुलकर कुछ काम करना चाहते हैं। सबसे पहले इसके पीछे डॉ. साहब की कहीं न कहीं प्रेरणा है। गोविंदजी से एक बार मुलाकात हुई तो हमलोगों को दोनों की विचारधारा समान दिखी, हमलोगों ने आपस में विचार-विनिमय किया। हमने कहा कि हमें यह काम शुरू करना चाहिए।
यह जो हमारा अभियान है, इसे हम एक आंदोलन ही कहेंगे- न्याय चौपाल। और इसका जो शीर्ष वाक्य है, जो guideline है – ‘’विवाद नहीं, संवाद’’। हम ये चाहते हैं कि हम उन सब बातों पर नहीं जाना चाहते, हमारे देश में कितने मुकदमे चल रहे हैं, उन मुकदमों के समाधान में क्या परेशानियां हैं?
कल का समाचार कहता है कि इलाहाबाद कोर्ट में 40 साल की अपीलें पेंडिंग हैं। चालीस-चालीस साल के? Criminal appeal pending हैं। लोगों ने अपनी सजा पूरी काट ली। अब उनकी अपील मंजूर हो या खारिज हो, उन्हें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। वे तो सजा काट चुके अपनी। तो ऐसी स्थिति में उनका चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम, जो न्याय व्यवस्था हमारे देश की, उसका हम कोई पुनरीक्षण नहीं करना चाहते, उसमें कोई सुधार करना हमारा उद्देश्य नहीं है, जो चल रहा है अच्छा है, चलता रहे। हमारा उद्देश्य उससे भी एक कदम पहले का है, हम ये चाहते हैं कि कोई भी विवाद उत्पन्न हो किसी भी प्रकार का, उसका समाधान स्थानीय स्तर पर किया जाए, वो विवाद न्यायालय तक पहुंचे ही नहीं। पहला प्रयत्न हमारा यही है, पुलिस- न्यायालय तक पहुंचे ही नहीं। और दूसरा कदम हमारा यह है कि जो पहुंच चुके हैं, उनको लौटाया जाए। और जो विवाद के पक्ष हैं उनको परस्पर बैठाकर विवाद का समाधान किया जाए संवाद के द्वारा, और उन्हें प्रेरित किया जाए कि न्यायालय से अपना विवाद आप वापस ले लें और यहीं गांव में एक पारिवारिक वातावरण में बैठकर विवाद का समाधान कर लें।
कभी-कभी शुरुआत की जाती थी तो हमलोग सोच सकते थे कि क्या ये संभव होगा? परंतु लगभग पिछले छह महीने में जो प्रगति हुई है, जितने प्रयास हुए हैं उससे लगता है कि ये पूरी तरह संभव है। जो हमको परिणाम मिले हैं बहुत उत्साहवर्धक हैं। जानकारी इस guidebook में आपको मिलेगी। अनेक प्रकरण ऐसे हैं जो लगता था कि समाधान नहीं होगा पर हो गया। मोटे-मोटे तौर पर हमारा कोई ऐसा न तो कोई कानून है जिससे हम कोई शासित होते हैं, न तो हमें किसी कानून का पालन करना है, न हमारी कोई निश्चित नियमावली है, मोटे-मोटे तौर पर गाइडलाइन्स हैंडबुक में दी गई हैं।
प्रारंभ में हमने सोचा था कि हम एक या दो गांवों में अपना काम शुरू करेंगे। एक या दो गांवों को विवादमुक्त बनाएंगे। और उन गांवों में जो काम हम कर पाएंगे उसको हम एक role model के रूप में बाकी स्थानों पर उनके सामने रखेंगे कि ये काम हो सकता है और इसके बाद हम धीरे-धीरे प्रसार करेंगे पर बहुत रोचक बात है हमारे इस काम की गति। कई जगह तो क्या होता है कि हम प्रयास करते हैं काम बढ़ाने का, लेकिन बढ़ ही नहीं पाता, यहां स्थिति यह है कि हम प्रयास कर रहे हैं रोकने का और वो बढ़ता जा रहा है। इससे लगता है कि लोगों के मन में इस प्रकार की पद्धति से समाधान करने के प्रयास को वो स्वागतयोग्य मानते हैं कि ये संभव है, ये किया जा सकता है और करना चाहिए।
व्यक्तिगत कुछ अनेक-अनेक अनुभव हुए हैं। पिछली बार की मिटिंग्स में हमलोगों ने कुछ चर्चाएं भी की थीं, कुछ उदाहरण सुने भी थे, कुछ हैंडबुक में प्रकाशित भी हुए हैं। तो मोटे तौर पर पद्धति ये होगी कि हमलोग जहां करना चाहते हैं उस गांव में, उस क्षेत्र में जाएं, वहां के स्थानीय लोगों का विश्वास अर्जित करें, इस विचारधारा से उन्हें परिचित कराएं। वहां के प्रत्येक गांव में, प्रत्येक बस्ती में कुछ ऐसे लोग जरूर होते हैं जिनका बहुत आदर होता है और लोग जिनकी बात मानते हैं, ऐसे लोग विवादों से दूर रहना चाहते हैं, हम भी उन्हें विवाद में नहीं डालना चाहते पर हम उनकी प्रतिष्ठा और उनके प्रभाव का प्रयोग विवादों के समाधान के लिए करना चाहते हैं तो जब भी कोई विवाद आता है तो उस विवाद का स्वरूप समझकर हमलोग स्थानीय प्रमुख व्यक्तियों का सहयोग और जो पक्षकार हैं वो और उनके परिवार के सदस्य उन सबको जोड़कर एक बार-दो बार-तीन बार चर्चा करके उनको हम कानून की स्थिति बताएं कि यदि विवाद कोर्ट में भी गया तो परिणाम यही होना है क्योंकि कानून ये कहता है। कुछ ले-देकर, थोड़ा फायदा उठाकर, थोड़ा नुकसान उठाकर भी नतीजों में फायदा ही होगा, जितना समय और पैसा मुकदमों में खर्च करोगे।
अभी मैं डॉ. कृष्णगोपालजी का वक्तव्य हैंडबुक में पढ़ रहा था कि 15 रुपए का, 14 रुपए का जुर्माना बचाने के लिए एक महाशय ने 500 रुपए की फीस देकर वकील किया। पर बोले, 15 रुपए जुर्माना नहीं दूंगा। Ego होती है या कभी-कभी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है जिसके कारण ये विवाद होते हैं। तो प्रत्येक प्रकरण विशेष में, विवाद विशेष में विवाद का कारण खोजकर समाधान की पद्धति हम निकालें और निकालकर विवाद का समाधान करने का प्रयास करें। और जैसे-जैसे सफलता मिलती जाएगी और जैसे-जैसे लोगों को ये पता चलता जाएगा कि ये अच्छे लोग हैं, अच्छी भावना से हमारे बीच आकर काम कर रहे हैं और हमारे भले के लिए कर रहे हैं तो हमारी मान्यता वहां बढ़ने लगेगी, और लोग अधिक से अधिक संख्या में हमारे पास आने लगेंगे।
हम लोग totally apolitical हैं। राजनीति से हमारा कुछ लेना-देना नहीं है। किसी भी प्रकार का राजनीतिक-लाभ उठाने का तो प्रश्न ही नहीं है और किसी राजनीतिक मंच या राजनीतिक दल से हमारा कोई जुड़ाव नहीं है। इस काम में जो भी चाहे, भले ही वो किसी पार्टी विशेष का हो, किसी पार्टी में पद धारण करता हो, हमें उससे कोई परहेज नहीं है, वो आए और यदि वो इस बात से सहमत है कि विवादों का समाधान संवाद से होना चाहिए उसका सहयोग लेने के लिए हम तत्पर हैं, उसका स्वागत है।
हम धीरे-धीरे अपना काम बढ़ाना चाहते हैं क्योंकि हम ऐसा नहीं चाहते कि हमारा काम नियंत्रण से बाहर हो जाए। काम चले, चलता रहे। जो काम कर रहे हैं उसकी जानकारी हमको मिले और इसमें मोटे तौर पर हैंडबुक में कुछ प्रारूप भी दिए गए हैं। भाई गोविंदजी ने कुछ बनाए हैं कि जो पक्ष होंगे वो एक सहमति-पत्र हमको सौपेंगे कि हमारा यह वादा है, हम आपको सौंपना चाहते हैं। और फिर जो समाधान होगा उसको लिखकर उनका एक हस्ताक्षर भी करा लेंगे और उन्हीं को दे देंगे। तो उनसे यह उन्हें पता रहे कि हमारा यह विवाद था और इस प्रकार से इन लोगों के हस्तक्षेप से विवाद का समाधान हो गया।
तो मोटे तौर इस प्रकार की हमारी ये कार्यपद्धति है। और आप सब लोगों की उपस्थिति का उद्देश्य यही है कि हमलोग एक-दूसरे को जानें, जानने के अलावा हमलोग क्या करना चाहते हैं, किस विचार से ये ‘न्याय चौपाल’ का काम जो धीरे-धीरे बढ़कर एक आंदोलन का एक रूप लेगा, शुरुआत हुई। इसलिए आपलोगों के जो सुझाव होंगे, उनका भी स्वागत है, आप कुछ कहना चाहें, बताना चाहें, कि हमारी कार्यपद्धति ऐसी होनी चाहिए, उसका स्वागत है। उसका समावेश समय-समय पर हम करते रहेंगे। ये एक संक्षेप में जानकारी है, आप में से किसी को कोई जिज्ञासा हो, शंका हो, यदि आप पूछना चाहेंगे तो हम उसको चर्चा करके उसे भी स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।
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आप सब लोगों ने बहुत अच्छे विचार रखे और जो विचार रखे बिना किसी प्रकार की औपचारिकता के। बिल्कुल जैसा अंदर है वैसा ही बाहर। सहज भाव से आपने रखे। तो सहज भाव में सत्य झलकता है। जो आज की चर्चा का निष्कर्ष है वह यह है- जो मुझे लगा कि जैसे अभी डॉक्टर साहब ने आध्यात्मिकता का जिक्र किया कि हमारी संस्कृति तो यह कहती है कि आध्यात्मिकता के साथ कोई भी काम किया जाए तो सफल होता है। तो जब हम कोई सच्चे संकल्प और शुद्ध मन से कुछ करना चाहते हैं तो आध्यात्मिकता स्वयं जागृत हो जाती है और अधिकांशत: शुद्ध हृदय से किये गये काम में सफलता मिलती ही है। हमारा आज मिलने का उद्देश्य यही था और हम जब जब भी मिलेंगे उद्देश्य यही है कि एक-दूसरे के अनुभव से हम सीखें और जैसा डॉक्टर साहब ने अभी कहा कि आपके सुझाव क्या हैं, क्या करना चाहते हैं, कैसे करना चाहते हैं तो हमने यह अनौपचारिक इसलिए रखा है- जैसे इतने अनुभव आपने सुने तो किसी स्थान पर किसी समस्या विशेष को लेकर के जो एक strategy की बात कही गई, समाधान का तरीका वहीं सोचना पड़ता है कि यहां कौन सा तरीका कारगर होगा और किस तरीके का प्रयोग किया जाए। अधिकांशत: पारिवारिक विवाद के प्रकारों की चर्चा हुई है। हमने भी यही सबसे पहले शुरूआत की है कि पारिवारिक विवादों को सबसे पहले सुलझाया जाए। सामान्य विवाद, फिर पारिवारिक विवाद में जहां सम्पत्ति जुड़ गई तो सम्पत्ति के विवाद और धीरे-धीरे उसका विस्तार किया जाए। अब बस एक ही बात बचती है- थोड़ा सा हमारे इस organization के movement को एक organize करने की आवयकता है। और गोविंदजी से चर्चा हुई है कि हमारा एक central office होना चाहिये ताकि सबके अनुभव वहां आएं, उनका collection किया जाए, विधिवत classify करके उनको file किया जाए। emails आएं उनका जवाब दिया जाए। इस सम्बन्ध में प्रयत्न कर रहे हैं। क्योंकि society का registration हो गया है तो उस तरीके से भी किया जा सकेगा और जिसके भी मन में जैसा विचार आए, जैसा अभी डॉक्टर साहब ने कहा, जो case study बनाने के लिए, जो आपने सुलझाया है, उसको व्यवस्थित तरीके से लिखकर भेज दें तो record हमारा बनता जाएगा और थोड़े समय में हमको उससे भी आत्मविश्वास जागृत होगा। देखिए आज हमने 1000 विवाद का समाधान कर दिया है और कैसे-कैसे समाधान किया है। case study से हमको समझने में सुविधा रहेगी और आगे के लिए उसी अनुभव से हम सीख सकेंगे। तो हम लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में रहेंगे, समय-समय पर मिलते रहेंगे और हमारे एक केंद्रीय कार्यालय की व्यवस्था हो जाती है, e-mail हो ही गया है और website भी हो गया है। इस पर आप जानकारी भेजते रहेंगे, जानकारी एकत्र रहेगी और हम लोग सब मिलते रहेंगे। तो आप सब लोगों ने अपना समय दिया। आप लोग आए, बहुत विचारों का विनिमय किया, इस सबके लिये आप सबका बहुत बहुत आभार।
धन्यवाद।
माननीय श्री रमेश चन्द्र लाहोटीजी का पूरा उद्बोधन सुनने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें: