समाज की नैतिक शक्ति के आधार पर छोटे-छोटे विवादों का समाधान हो : डॉ. कृष्ण गोपाल
‘न्याय चौपाल’ द्वारा 26 फरवरी, 2017 को आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह मा. डॉ. कृष्ण गोपालजी द्वारा दिया गया उद्बोधन
मित्रो, देशभर में ऐसे मुकदमे जो न्यायालय में लंबित हैं, उनकी संख्या करोड़ों में है। जो लड़ते हैं वह दोनों ही पक्ष बर्बाद हो जाते हैं। बड़ी संख्या में पैसा तो लगता ही है, लंबी अवधि में न्याय मिलता है। दस साल, पंद्रह साल, बीस साल, कोई सीमा नहीं है। न्याय मिलने के बाद भी समाधान नहीं होता, स्थायी कटुता, शत्रुता, वैमनस्यता हो जाती है और कभी-कभी एक फैसला दूसरे नये case को जन्म देता है। तो भारत की न्याय पद्धति जो पिछले सौ – सवा सौ वर्षों में विकसित हुई है, क्या वह न्याय पद्धति हमारे देश की जो सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक पृष्ठभूमि है उसके अनुकूल है? क्या वह सच में न्याय देती है? क्या इसका कोई दूसरा विकल्प हो सकता है? यह बड़ा प्रश्न है। जैसी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक स्थिति हमारे देश की है उसमें यह न्याय व्यवस्था कितनी कारगर सिद्ध हो पा रही है, यह एक मूल मुद्दा चर्चा का है।
इसमें सबसे पहले तो हम लोग इस पर विचार करते हैं कि भारत में वर्तमान में जो judicial system है, हमको उसकी चर्चा नहीं करनी। उसमें कोई सुधार लाना और उस सिस्टम को बदलना, उसकी चर्चा के लिए हम यहां पर नहीं बैठे। चर्चा का मुद्दा यह है कि जो बड़े ही छोटे-छोटे से cases आते हैं, छोटे-छोटे से झगड़े होते हैं, बड़े petty conflicts हो जाते हैं, वह धीरे-धीरे न्यायालय में पंहुच जाते है, थाने पंहुच जाते हैं, पुलिस पहुंच जाते हैं, वहां के पुलिस केस बन जाते हैं, कभी दूसरा केस बन जाता है। क्या वह सच में ऐसे झगड़े हैं कि जो न्यायालय में ही जाने चाहिए? क्या उसकी और कोई व्यवस्था हो सकती है? यह बड़ा प्रश्न है। उदाहरण के लिए एक परिवार में छोटा सा विवाद हो जाता है, पति-पत्नी का विवाद हो जाता है तो कोर्ट केस बन जाता है फिर वो लड़की जो है वह पांच-सात केस इनके ऊपर लगा देती है, सास-ससुर सबको जेल भिजवा देती है, वे रोते-गाते जमानत करवाते हैं, केस चलता है, अंत में क्या फैसला होता है वो छोड़ दीजिए। कुल मिलाकर दोनों ही परिवार परेशान होते हैं। क्या समाधान क्या है इसमें? तो दोनों परिवारों को बिठाकर चर्चा करके इनके साथ चर्चा, उनके साथ चर्चा, करते-करते कोई एक समाधान निकल सकता है, कोर्ट के अलावा भी? परिवार को कोर्ट में जाना पड़े जरूरत क्या है? कई जातिगत संस्थाएं ऐसी होती हैं, उदाहरण के लिए, मानो हमारे गांव में समाज है उनकी एक बिरादरी है। उस बिरादरी में कोई झगड़ा हो गया, परिवार में ऐसा कोई केस आ गया तो उस बिरादरी की जो पंचायत होती है, उसके चार बुजुर्ग लोग बैठ सकते हैं। दोनों पक्षों से बार-बार बात करते हैं। एक राउंड, दो राउंड, तीन राउंड, चार राउंड, इसको समझाना, लड़की की मां को समझाना, लड़के की मां को समझाना, दोनों के पिता को समझाना, लड़का-लड़की को समझाना और बाद में दोनों को बुलाकर वो जो पंचायत का प्रमुख है, इस लड़की को सौ रुपए दे देता है दक्षिणा में या भेंट या गिफ्ट में देता है, बेटा तू जा अच्छे से रहना। थोड़ा सा इस लड़की को समझाता है, थोड़ा सा लड़की की मां को समझाता है। लड़के को समझाता है। लड़के के परिवार वालों को समझाता हैं। कैसे छोटे-छोटे से जो मुद्दे और एक परिवार न्यायालय में जाने वाला था यह बच जाता है। यह कोर्ट के बाहर का समाधान होता है। दो भाईयों में विवाद हो जाता है, तीन भाईयों में विवाद हो जाता है प्रॉपर्टी को लेकर और किसी बात को लेकर विवाद हो जाता है। तो उन्हीं के कुल-खानदान के लोग बैठ जाते हैं, इसके बहनोई बैठ जाते हैं। इसके फूफा बैठ जाते हैं। कोई चाचा-ताऊ बैठ जाते हैं। मिलकर बैठकर बात को समझकर वे दोनों तीनों-चारों को समझाकर वो फैसला कर देते हैं। हमने ऐसे बहुत फैसले देखे भी हैं। बिठाते हैं, समझाते हैं, इसको समझाते हैं उसको ज्यादा गुस्सा आता है, उसको समझाते हैं जो थोड़ा सा ज्यादा चतुराई करता है उसको समझाते हैं। और फैसला कर दे देते हैं, लेकिन कोर्ट में नहीं जाते हैं। यह जो न्याय व्यवस्था इस देश में सामाजिक परिवेश में, सांस्कृतिक परिवेश में चली आ रही है। लेकिन जहां ऐसे लोग नहीं मिलते वे न्यायालय में जाते हैं। और फिर दो साल, तीन साल। अभी थोड़े दिन पहले ही एक ऐसा हो गया एक प्रदेश में, एक परिवार में विवाद हो गया। अभी शादी हुई थी, अभी एक साल भी नहीं हुआ था। अच्छे बड़े पढ़े-लिखे लोग थे दोनों। तो वह लड़का जेल भेज दिया और उसकी मां भी जेल चली गयी। अब रो रहे बेचारे, क्या करें, कहां जाएं, जैसे-तैसे करके दो, चार, पांच लाख रुपए लगाकर जमानत कराकर बाहर आते हैं वो अपनी कथा कहते हैं और वो अपनी कथा कहते हैं। क्या सच है कहना कठिन होता है, कुल मिलाकर झगड़ा-विवाद। प्रश्न यह है कि वर्तमान में इस देश में जो करोड़ों मुकदमे हैं-कुछ बहुत गंभीर भी होंगे अलग बात है। बड़ी संख्या ऐसी है जिनका कि जो character है, जो स्वरूप है, बहुत छोटा सा मान्य है। इनको कैसे हल कर सकते हैं?
अभी कुछ साल पहले हम लोग गए थे कर्नाटक में, जो धर्मस्थल नाम की जगह है वो सईब तीर्थ है लेकिन उस सईब तीर्थ के प्रमुख एक जैन है, हेगड़े साहब हैं। बहुत सारे शिक्षण संस्थान भी वह चलाते हैं। उनके यहां ही एक बैठक थी। बैठे, बातचीत हुई, पता चला आसपास के कोई 3-4 हजार गांवों के लोग इनके पास न्याय के लिए आते हैं, ये सुनते हैं, सुनने के बाद न्याय देते हैं। न्याय मिलने के बाद वे लोग उन्हें प्रणाम करते हैं। मानते हैं और चले जाते हैं। हमने उनसे पूछा कि आप जो महाराजजी न्याय देते हैं आपकी बात को सब लोग मानते हैं इसका आधार क्या है? तो बड़े मुस्कराकर बोले कि इसका आधार हम नहीं बता सकते हैं। इसका आधार वो लोग बता सकते हैं जिनको न्याय मिलता है। हम नहीं बता सकते। हमारे पास कोई ऑथरिटी नहीं है। सरकार ने, संविधान ने, हमको कोई ऑथरिटी दी है, ऐसा नहीं है। कुल मिलाकर यह ऑथरिटी क्या है। हजारों गांव के लोग आए, इन्होंने सुनाया उन्होंने सुनाया, दो बार-तीन बार सुना और सुनने के बाद भी फैसला किया। वो मान गए। हजारों केस करते हैं वैसे निपटाते हैं। सरकार भी उनको recognize करती है, वहां का न्याय भी कानून भी सभी उनको मान्यता देता है, आधार क्या है? आधार है उनकी निष्पक्षता। आधार है उनका कोई स्वार्थ न होना। आधार है दोनों ही दलों के साथ इनका प्रेम का व्यवहार। निष्पक्षता लोगों को मालूम है, यह न्याय करेंगे। हमारी गलती होगी तो हमको बताएंगे। इनकी गलती होगी तो इनको बताएंगे। इतना विश्वास जो है, वहां का इसके कारण से इनको न्याय मिलता है। एक पैसा भी खर्च नहीं करते, बल्कि इनके यहां तो यह भी व्यवस्था है, बहुत बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं हैं, हजारों लोगों के रहने की निःशुल्क व्यवस्था हैं। जो वहां रहेगा उसको कोई पैसा देना ही नहीं है। न निवास का, न भोजन का। न जलपान का, न वस्त्र का। आइए, रहिए। सात दिन रहिए, चले जाइए। फिर आ जाइए। एक बार सात दिन फिर रह सकते हैं। ये जो एक व्यवस्था उन्होंने बनाई, ऐसी व्यवस्था अभी भी आज के समय भी देश भर में हजारों स्थान पर छोटे बड़े रूप में मौजूद है।
अभी मैं इन्द्रेश जी से एक दिन बात कर रहा था उन्होंने हिमाचल के कई गांव बताए, उन गांवों में व्यवस्था है कोई मुकदमा है ही नहीं, कोई केस पुलिस में जाता ही नहीं, छोटे-मोटे विवाद खड़े होते हैं वहीं के लोग बैठकर फैसला करते हैं, सब मान जाते हैं गांवों में, उन्होंने व्यवस्था की है। उनके पास जाएंगे व्यवस्था दे देंगे। कोई मुकदमा तो नहीं जाता कोर्ट में कचहरी में, नहीं जाते पुलिस में कोई एफआईआर तो नहीं होता है, कैसे हो गया ऐसा। बुलन्दशहर में एक हमारे कृष्ण कुमारजी उपाध्याय एक एडवोकेट थे क्रिमिनल के। तो वे एक बेलोण की बड़ी देवी है उस देवी के महंत परिवार के भी थे तो कभी कभी उनके यहां का मुकदमा उनके पास आता था। तो इनके घर में बुलन्दशहर में नीचे एक 5-7 कमरे अच्छी गौशाला नीचे थी यह परिवार ऊपर रहता था। जो मुकदमा लेकर आते थे उनको कहते थे नीचे ठहर जाओ, नीचे ठहर जाते थे, शाम को कचहरी से/न्यायालय से आने के बाद उनको बुलाते थे। हां, वकील साहब हमारा केस लड़ लीजिए। नहीं, नहीं मैं तुम्हारा केस नहीं लडूंगा, मेरे बैलोण के पास जो दस गांव है, इन 10 गांवों का मुकदमा नहीं लड़ता मैं, तुम्हारा फैसला करता हूं, दोनों पार्टियों को अपने यहां ठहराते थे, दोनों पार्टियों को कहते थे गाय का दूध मेरे यहां है अपने लिए नीचे खाना पीना बनाओ, खाओ, चिंता मत करो, रहो यहां, 2 दिन, 3 दिन 4 दिन तक दोनों पार्टियों को रूकाते थे, बाद में फैसला करते थे। विदा करते थे। कोई पार्टी जिद्द करती तो कहते थे-नहीं-नहीं हमारा केस लड़िए, आप तो कहते थे वकील बहुत है चले जाइए, जाओ यहां से वकीलों की क्या कमी है, मैं तो इन 10 गांव का मुकदमा नहीं लडूंगा। तुम्हारा पंचायत करवाऊंगा, फैसला करवाऊंगा, हजारों केस उन्होंने निपटा दिये, अब तो आज नहीं हैं। गुजर गए, मेरा कहने का भाव ऐसा है समाज में ऐसे लोग रहते हैं जो वकील भी हो सकते हैं, वकील नहीं भी हो सकते है। लेकिन समाज में, गांव में, शहर में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है जिनके प्रति लोगों का भरोसा है। विश्वास है। निष्पक्षता के बारे में लोगों को कोई संदेह नहीं है। प्रामाणिकता के बारे में कोई भेदभाव करेंगे, ऐसा बिल्कुल नहीं। ऐसे लोग जहां पर है वह लोग अच्छी प्रकार से वहां के विवाद का समाधान करने में समर्थ होते हैं। हमारा यह विचार है बहुत बड़े-बड़े मुकदमे हम छोड़ दें। जो सामान्य हैं, घर का, परिवार का, छोटा-मोटा झगड़ा ऐसे हैं। इसकी भैंस हमारे खेत में घुस गई थी, हमारा खेत खा गई, इससे मार-पीट हो गई फिर फौजदारी हो गई, दोनों-तीनों तरह के केस लग गए, चल रहा है। वो जमीन जिस जमीन पर भैंस खा गई वह जमीन भी बिक गई। अब कुछ नहीं बचा वहां, केस बचा है लेकिन ऐसे मामलों को क्या हम अपने moral authority से वो प्रतिष्ठा जो वहां के समाज ने हमको दी है, जो विश्वास वहां का समाज हमारे प्रति रखता है, उस विश्वास के आधार पर, अपनी moral authority के आधार पर निष्पक्षता के आधार पर वहां के लोगों के इन मुद्दों को सुलझा सकते हैं क्या? यह मुद्दा है बस। न्यायालय में न्यायाधीश कम है, procedure ऐसे किया जाए कि अरदली को ऐसा किया जाए, संविधान में संशोधन किया जाए, यह विषय नहीं है हमारा, वह जो करना है, वह करेंगे हम, उसमें फंस जाएंगे तो हम समाधान भी कोई नहीं दे सकते कुछ भी। सुधार क्या होगा। भगवान जाने वह हमारे बस का काम नहीं है।
हम दो बार बैठे थे, श्रीमान लाहोटीजी के साथ, भाईसाहब भी बैठे थे दोनों बार, एक बार हम 5-7 बंधु बैठे, एक बार उनके घर पर जाकर बैठे। और भी अनेक लोगों से बातचीत हुई तो उनका मत यह था कि यह बहुत अच्छे से हो सकता है। सब तो नहीं लेकिन 15-20-25 प्रतिशत केस ऐसे हैं जो इस condition के है, इस nature के है इनको हम वहीं समाधान दे सकते हैं। ऐसा सब जो बड़े-बड़े न्यायाधीश लोग है, सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं, उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं, उन्होंने ही बताया। हां 30-35 प्रतिशत तक केस ऐसे हैं जिनकी प्रकृति ऐसी है जो बैठाने से, सुलझ सकते हैं लेकिन उसके लिए ऐसे ही लोग चाहिए जैसा हमने बताया। कोई authority नहीं हैं, Constitutional authority हमारे पास नहीं है लेकिन वहां के क्षेत्र का एक, नैतिक हमारा एक आधार है। तो हमारी कॉलोनी में 10-20-25 लोग हमें जानते हैं, मानते हैं हमारे पर श्रद्धा रखते हैं। हम उसको बुलाकर समझाएंगे, बात करने की कोशिश करेंगे। एक sitting में नहीं होगा, 2 sitting में, 3 sitting में उसका Modus Operandi क्या होगा यह तो तय करेंगे बाद में, लेकिन क्या यह संभव है? यह पहला प्रश्न है। क्या ऐसी छोटी-छोटी सी बातें आती हैं, न्यायालय चलता है, उसको अपने मोहल्ला, गांव, शहर वहीं के वहीं बैठकर दो तीन लोग बैठ गए, एक-एक, दो-दो, तीन-तीन लोगों का समूह बैठ गया। दो-दो लोगों की टीम बनकर बैठ गई, दोनों ने सुना, अलग-अलग सुना, मिलकर सुना। बाद में सहमति के साथ कोई एक अच्छा सा सुझाव निर्णय जैसा दे दिया। हमारा जो होगा सुझाव होगा, वो सुझाव को निर्णय मान लेंगे तो अच्छी बात है। तो पहला प्रश्न यह है क्या यह संभव है? कई बार कॉलोनी में, गांव में, छोटी बात को लेकर मारपीट हो गई। बहुत छोटी सी बात है, इसके दो बच्चे वहां चले गए, या वो हो गया, यह हो गया। मारपीट कई बार बढ़ जाती है, बस FIR lodge हो गई। उसमें यही बात प्रमुख रहती है कि इसको कैसे मैं जेल भिजवा दूं। तो जेल भिजवाने के लिए दारोगा को भी पैसा देकर आता है, पुलिस अधिकारियों को पैसा दे आता है, सिपाही को भी पैसा दे आता है। पर जब पैसा देकर जेल भिजवाए तो दूसरे की स्थिति ऐसी हो जाती है, पहले जमानत हो फिर इसको सबक सिखाऊं। इसका बदला भी लेना है इसको। यह कठिन बात है।
हमारे सुरेश सोनीजी ने एक केस बताया हमको, मध्य प्रदेश का पुराना केस था। किसी बात को लेकर वहां के ठाकुर साहब थे, उनके उपर 14 रुपए का जुर्माना हो गया। यही कोई 30-35 साल पुराना केस है। जुर्माना हो गया तो पूरे गांव में वो जुर्माना वाला आया तो गांव में घोषणा कर गया। 14 रुपए का जुर्माना हो गया है जाकर जमा करिये। यह बात ठाकुर साहब को खराब लगी। पूरे गांव में अपमान हो गया, बेईज्जती हो गयी। वह आए, अपने ग्वालियर के एक अच्छे वकील थे शेजवलकरजी थे, उनके पास आए, वकील साहब हमारा केस है, क्या केस है, जुर्माना हो गया, क्या जुर्माना हो गया। 14 रुपए जुर्माना हो गया। तो भर दीजिए। नहीं, नहीं भरेंगे। भरेंगे कैसे? जुर्माना भर देंगे तो क्या बेकार रहा साहब, केस लड़िए। अरे क्या फालतू इस में पड़ गए आप, नहीं-नहीं लड़िए आप। हम फीस देंगे। फीस तो 500 रुपए होगी। 500 रुपए जमा करेंगे न हम। 500 रुपए फीस जमा किया। केस शुरू हो गया। 2-3-4 साल केस चला। हम केस जीत गए। वकील साहब को मालूम ही नहीं, जीतने की सूचना भी उनके पास पहुंच गई। जुर्माना माफ हो गया। एक बड़ी बैलगाड़ी में वे बड़े रथ सजा करके बड़े गाजे-बाजे के साथ वकील साहब के घर आ गए, वकील साहब ने देखा कौन 100-200 लोग आए हैं। कहां वकील साहब के घर, क्या बात है। आपका स्वागत करने के लिए, हम उस गांव से, हम केस जीत गए। कौन सा केस जीत गए आप? वो 14 रुपए जुर्माने वाला। तो करना क्या है इसका अब। माला वाला लेकर आए हैं। अरे इसका क्या जरूरत था। फिर 14 हजार रुपए लेकर आए हैं। 1 रुपए का एक हजार रुपया ईनाम में देंगे हम आपको। चांदी का सिक्का 14000 उस बैलगाड़ी में भरकर लाए हैं देने के लिए। यह क्या हैं? लोगों को ऐसा लगता है कि हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है।
भिंड के जो दस्यू लोग थे, हमें सौभाग्य प्राप्त हो गया उनके साथ रहने का, आपातकाल के समय वह जेल में थे। माधोसिंह वगैरह थे, हम लोगों के साथ जेल में थे। तो वह 6’3’’ का लंबा माधोसिंह, अच्छी पर्सनैलिटी थी, जेल में था। बातचीत होती थी, सन 75 की बात है। हमने पूछा ठाकुर साहब क्या हुआ, जेल में कैसे आ गए। अरे जेल में कैसे आ गये, थे तो फौज में हम लोग। लेकिन यहां के बदमाश लोग क्या बताए हमारी जमीन ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया, फिर हम वापस आए और हमने भी दो मार दिए और ठीक कर दिया हमने फिर। फिर क्या हुआ उन्होंने मारे दो फिर हम बाहर निकले फिर हमने मार दिये दो। अब क्या 53 मुकदमे हमारे ऊपर हैं अब इस समय। अभी जीवित हैं। अभी मैं गया था भिंड तो पता लगा जीवित है वो आयु तो थोड़ा 80-82 साल की है उनकी। वो प्रतिष्ठा का स्वरूप ऐसा होता है जीवन जेल में निकल जाए, उसकी चिंता नहीं है, इसको ठीक दिशा देने का काम कौन कर सकता है? और इसलिए ऐसे जो बंधु इन मुकदमों में फंस जाते हैं वो स्वभाव के कारण, व्यवहार के कारण झूठी प्रतिष्ठा के कारण या असहनशीलता के कारण कोई बात सहन हो नहीं पाती, इसके कारण या ईर्ष्या द्वेष के कारण, कारण कोई सा भी हो बाद में चर्चा करेंगे, पहला प्रश्न यह है, क्या हम लोग अपने इसी समाज में अपने समाज बंधुओं को जो किसी भी कारण से एसे मुकदमों में फंस जाते हैं, जीवन बर्बाद करते हैं, पैसा भी बर्बाद करते हैं, मानसिक अशान्ति आ जाती है, समय तो लगता ही है। सारी creativity धीरे-धीने नष्ट होती जाती है। Ultimately, this is National Loss. यह राष्ट्रीय क्षति है। कुल 2 करोड़ हैं, यह तो न्यायालय में हैं, उसके अलावा Tribunal में, Arbitration में, सब 3 करोड़ से ऊपर हैं।
मैंने सोचा कि गोविन्दजी से बात करूं तो एक 3-4 महीने पहले गोविन्दजी के साथ बैठे। उन्होंने बड़ा गंभीरता से विचार किया, अध्ययन भी किया, एक-दो छोटी सी sitting हम लोगों ने किया। तब पहले चरण में हम लोगों ने विचार किया कि दिल्ली और फरीदाबाद, बस दो spot लेते हैं। दो spot और छोटा-छोटा स्थान लें लेंगे। वहां के कुछ ऐसे बंधु जो इस प्रक्रिया में सहयोगी भूमिका निभा सकते हैं, समाधान की भूमिका में समाज में आ सकते हैं, ऐसे कुछ नामों का चयन किया, ऐसे कुछ नाम आप लोग हैं तो इस बात को हम आगे बढ़ाते हैं तो पहला प्रश्न मेरा यही है कि क्या यह संभव है, कोर्ट के बाहर समाज के ऐसे विवादों को निपटाना, समाधान के इस स्तर पर ले आना या हमारे इस नैतिक शक्ति के आधार पर यह संभव है क्या? समाज की नैतिक शक्ति के आधार पर हम छोटे-छोटे से कम गंभीर मामलों को हम वहीं के वहीं समाधान दे सकते हैं क्या? ऐसी कोई procedure निकल सकती है क्या? हम इस पर विचार करते हैं।
मा. कृष्ण गोपालजी का पूरा उद्बोधन सुनने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें :